जिसकी हुंकार से हिल जाती थी दिल्ली, जानिए कौन है वो शख्स जिसकी है जयंती

25 अक्टूबर 1988 को नई दिल्ली के वोट क्लब मैदान में जब लाउडस्पीकर पर एक गूंज उठी — “खबरदार इंडिया वालों! दिल्ली में भारत आ गया है” — तो उस आवाज़ से राजधानी थर्रा गई थी। यह आवाज़ थी किसान मसीहा चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की, जिनकी सादगी, देसी अंदाज़ और किसान हित की प्रतिबद्धता ने उन्हें देश के सबसे बड़े जननायक नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा किया।

जिसकी हुंकार से हिल जाती थी दिल्ली, जानिए कौन है वो शख्स जिसकी है जयंती

कहते हैं, जब किसी एक व्यक्ति की आवाज़ पूरे देश की व्यवस्था को हिला दे, तो समझिए वह आवाज़ सिर्फ शब्द नहीं, इतिहास होती है। 25 अक्टूबर 1988 को नई दिल्ली के वोट क्लब मैदान में जब लाउडस्पीकर पर एक गूंज उठी — “खबरदार इंडिया वालों! दिल्ली में भारत आ गया है” — तो उस आवाज़ से राजधानी थर्रा गई थी। यह आवाज़ थी किसान मसीहा चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की, जिनकी सादगी, देसी अंदाज़ और किसान हित की प्रतिबद्धता ने उन्हें देश के सबसे बड़े जननायक नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा किया।

बाबा महेंद्र सिंह टिकैत किसी मंच के बने-बनाए नेता नहीं थे। वे खेतों की मिट्टी से निकले, हुक्के की गुड़गुड़ाहट के साथ सच्चाई बोलने वाले, और दिल्ली की सत्ता को किसान की नब्ज़ से परिचित कराने वाले शख्स थे। अस्सी के दशक में जब देश के किसान सरकारी तंत्र और महाजनी व्यवस्था से त्रस्त थे, तब मुजफ्फरनगर के सिसौली गांव से उठी यह आवाज़ धीरे-धीरे आंदोलन में बदल गई। चौधरी टिकैत का पहला बड़ा आंदोलन 1987 में करमुखेड़ी बिजलीघर पर हुआ, जिसमें दो किसानों की पुलिस गोली से मौत हुई। उसी घटना से देश का किसान जाग उठा।

27 जनवरी 1988 को टिकैत ने मेरठ कमिश्नरी के घेराव का आह्वान किया। लाखों किसान वहाँ पहुँचे और 19 फरवरी तक जमे रहे। यह वो आंदोलन था जिसने सत्ता को झुकने पर मजबूर किया और किसानों को एकजुटता का अहसास दिलाया। “हर हर महादेव” और “अल्लाहु अकबर” के नारों ने सांप्रदायिकता की दीवारें गिरा दीं। चौधरी टिकैत ने सिखाया कि धर्म, जात और भाषा से ऊपर, सबसे पहले किसान होना जरूरी है।

टिकैत का सबसे ऐतिहासिक आंदोलन 1988 की दिल्ली किसान पंचायत थी, जिसमें लाखों किसानों ने वोट क्लब मैदान भर दिया। उनकी सीधी, बेबाक और जमीनी बोली ने दिल्ली के एलीट नेताओं को असहज कर दिया। सत्ता के गलियारों में पहली बार महसूस हुआ कि भारत की असली ताकत गांवों में है। वे कभी कुर्ता-पायजामा या टोपी के नेता नहीं बने — वे हुक्का लेकर बोलने वाले किसान थे, जिनकी बात खेत की महक जैसी थी।

आज जब उनकी जयंती पर किसान उन्हें याद कर रहे हैं, तब यह सवाल भी उठता है कि क्या आज के किसान आंदोलन उसी जोश और ईमानदारी से खड़े हैं जैसा टिकैत जी के समय था? उनके पुत्र राकेश टिकैत इस विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने सत्ता के खिलाफ मजबूती से आवाज़ उठाई और किसानों की एकता को बनाए रखा। लेकिन बाबा टिकैत के पैमाने पर आज के संघर्षों को मापें, तो लड़ाई अभी अधूरी है। किसान आज भी अपनी फसलों के वाजिब दाम के लिए, भूमि अधिग्रहण के खिलाफ, और ऋण माफी की उम्मीद में संघर्षरत हैं।

भारत आज भी कृषि प्रधान देश कहा जाता है, लेकिन किसान की हालत देखकर यह वाक्य सिर्फ किताबों में अच्छा लगता है। गन्ना, गेहूं, धान, कपास, टमाटर जैसे उत्पाद किसान आज भी लागत से कम कीमत पर बेचने को मजबूर हैं। सरकारी नीतियाँ कागजों पर किसानों के पक्ष में हैं, लेकिन जमीन पर उनकी पहुँच सीमित है। भूमि अधिग्रहण कानूनों के नाम पर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है, और मुआवजे की प्रक्रिया अब भी विवादित है।

बाबा टिकैत का सपना था — “किसान इतना जागरूक हो जाए कि उसकी आवाज़ सत्ता तक पहुँचे।” उन्होंने कहा था, “किसान की बात अगर संसद में नहीं सुनी जाती, तो संसद को गाँव में ले आओ।” यह विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तीन दशक पहले था। टिकैत ने किसानों के मुद्दों को राजनीति से अलग रखा। वे कहते थे — “नेता तो आते-जाते रहेंगे, लेकिन किसान को अपने हक़ के लिए खुद खड़ा होना पड़ेगा।”

आज भी देश के हर हिस्से में जब किसान अपने हक की बात करता है, तो कहीं-न-कहीं टिकैत की छवि उसके पीछे खड़ी दिखाई देती है। उनकी संवेदना भरी आवाज़, ठेठ देहाती बोल और खालिस ईमानदारी किसानों की चेतना का हिस्सा बन चुकी है। चौधरी चरण सिंह के बाद देश में किसानों के सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता के रूप में टिकैत का नाम अमर है।

उनकी जयंती पर उनके पुत्र राकेश टिकैत ने कहा — “जब-जब देश का किसान, मजदूर, दलित या पिछड़ा वर्ग संघर्ष से गुजरता है, तब बाबा की कमी महसूस होती है। लेकिन उनके बताए रास्ते पर चलकर हम किसान हितैषी नीतियों का निर्माण कराने की कोशिश कर रहे हैं। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।”

कह सकते हैं कि बाबा महेंद्र सिंह टिकैत एक आंदोलन नहीं, बल्कि एक विचार हैं — ऐसा विचार जिसने सत्ता के अहंकार को किसान के आत्मसम्मान के आगे झुकाया। उनकी सादगी, निडरता और निष्ठा आज भी हर किसान के मन में जीवित है। दिल्ली की सत्ता चाहे जितनी बुलंद क्यों न हो, किसान की आवाज़ अगर टिकैत की तरह उठे — तो दिल्ली आज भी हिल सकती है।