थार महोत्सव या सरकारी खानापूर्ति? जनता बोली- अब बस फंड डकार योजना लगती है
बाड़मेर में 8 और 9 अक्टूबर को आयोजित थार महोत्सव इस बार लोक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन से अधिक सरकारी खानापूर्ति का कार्यक्रम बनकर रह गया। आदर्श स्टेडियम से लेकर किराडू मंदिर तक चले दो दिवसीय इस आयोजन में न तो भीड़ दिखी, न जोश, न उत्साह।

बाड़मेर में 8 और 9 अक्टूबर को आयोजित थार महोत्सव इस बार लोक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन से अधिक सरकारी खानापूर्ति का कार्यक्रम बनकर रह गया। आदर्श स्टेडियम से लेकर किराडू मंदिर तक चले दो दिवसीय इस आयोजन में न तो भीड़ दिखी, न जोश, न उत्साह। प्रशासन की अनमनी तैयारी और जनसहभागिता के अभाव ने पूरे कार्यक्रम को फीका बना दिया। जिन आयोजनों को पर्यटन को बढ़ावा देने और स्थानीय कला को मंच देने के उद्देश्य से किया जाता है, वे अब केवल औपचारिकता निभाने तक सिमटते दिख रहे हैं।
पहले दिन आदर्श स्टेडियम में प्रतियोगिताएं आयोजित की गईं, लेकिन आमजन की भागीदारी नगण्य रही। अधिकारी, पुलिस और कुछ सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर ही दिखाई दिए। किराडू में दूसरे दिन भी यही हाल रहा — सांस्कृतिक प्रस्तुतियां और प्रतियोगिताएं प्रतिभागियों की कमी के कारण अधूरी रह गईं। सवाल यह उठ रहा है कि जब स्थानीय लोग ही आकर्षित नहीं हुए, तो विदेशी पर्यटक क्या खाक आकर्षित होंगे? करोड़ों के बजट से आयोजित इस आयोजन का मकसद आखिर किसे लाभ पहुंचाना था — संस्कृति को, जनता को या कुछ चुने हुए लोगों को?
सबसे बड़ी चर्चा रही “थार सुंदरी” और “थार श्री” प्रतियोगिताओं की। थार सुंदरी का खिताब नक्षत्री चौधरी को मिला, लेकिन दूसरी प्रतिभागी रिंकू ने भेदभाव और जातिगत पक्षपात का आरोप लगाया। सोशल मीडिया पर भी लोगों ने रिंकू को असली विजेता बताया। “साफा बांधो” प्रतियोगिता में भी यही आरोप दोहराए गए — जहां एक स्थानीय सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर को विजेता घोषित कर दिया गया, जबकि उनसे बेहतर प्रदर्शन करने वालों को दरकिनार कर दिया गया। इससे पहले भी पोकरण महोत्सव और मरु महोत्सव में इस तरह के “मैनेजमेंट” विवाद सामने आ चुके हैं, जहां विजेता का चयन योग्यता से नहीं, प्रभाव से हुआ।
दरअसल, थार महोत्सव कभी पश्चिमी राजस्थान की लोकसंस्कृति, कला और परंपराओं का गौरव था। 1986 में इसकी शुरुआत हुई थी, ताकि थार क्षेत्र की बोली, पहनावे, संगीत, नृत्य और परंपरागत जीवनशैली को मंच मिल सके। 2012 तक यह कार्यक्रम तीन दिवसीय रूप में लगातार आयोजित होता रहा, लेकिन बाद में लगभग एक दशक तक बंद रहा। 2022 में इसे फिर शुरू किया गया, पर तब से यह अपनी मूल भावना से भटकता जा रहा है। पहले जहां कैलाश खेर और कुमार विश्वास जैसे कलाकार मंच पर आते थे, वहीं अब कार्यक्रम सीमित और साधारण हो गए हैं।
इस बार आयोजन में रणनीति और नेतृत्व दोनों की कमी दिखी। जिला प्रशासन की ओर से तैयारी औपचारिक रही, और जिला कलेक्टर टीना डाबी तक ने केवल कुछ घरों में चावल वितरण कर प्रतीकात्मक उपस्थिति दर्ज करवाई। जिले के बड़े राजनेता, जनप्रतिनिधि और सामाजिक कार्यकर्ता कार्यक्रम से गायब रहे। नतीजा यह हुआ कि मंच पर वही चेहरे नजर आए जो प्रशासन के करीब हैं या सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय हैं।
स्थानीय कलाकारों और लोक परंपरा से जुड़े लोगों के लिए यह निराशाजनक स्थिति रही। जिन महिलाओं, युवतियों या पुरुषों ने पारंपरिक थारी संस्कृति को अपने जीवन में जिया है, वे अब मंच से गायब हैं। एंकर मंच से हिंदी और अंग्रेज़ी में बातें करते हैं, जबकि थार की आत्मा मारवाड़ी बोली और राजस्थानी भाषा में बसती है। निर्णायक मंडल के सदस्यों की योग्यता, चयन प्रक्रिया और पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। आखिर तय कौन करता है कि थार की पहचान कौन होगा?
लोगों का कहना है कि अब यह आयोजन लोकसंस्कृति का नहीं, बल्कि सत्ता और प्रभावशाली लोगों की दिखावे की प्रदर्शनी बन गया है। जो कलाकार या प्रतिभा चाटुकारिता में माहिर है, वही आगे बढ़ रहा है। बाकी लोग केवल इस उम्मीद में हिस्सा लेते हैं — शायद इस बार कुछ बदल जाए।
वास्तविकता यह है कि थार महोत्सव अब अपने उद्देश्य से भटक गया है। यह लोकजीवन का उत्सव नहीं, बल्कि बजट निपटाने और फाइलें पूरी करने का माध्यम बन गया है। न जनसहभागिता रही, न पारदर्शिता। न स्थानीय कलाकारों का सम्मान, न जनता का जुड़ाव। आज जरूरत इस बात की है कि थार महोत्सव दो दिन के मंचीय आयोजनों से बाहर निकलकर एक सालभर चलने वाला सांस्कृतिक अभियान बने। स्थानीय प्रतिभाओं को प्राथमिकता दी जाए, निर्णायक मंडल पारदर्शी हो और लोगों को इस कार्यक्रम से जोड़ा जाए।
फिलहाल बाड़मेर की जनता कह रही है — “बस हो गया थार महोत्सव भी सरकारी फंड डकार योजना का जमीनी क्रियान्वयन।”
थार वासियों के मन में अब सवाल है — क्या यह लोक संस्कृति का पर्व रह गया है, या फिर एक औपचारिक आयोजन बनकर रह गया है?