बाड़मेर के बाल मजदूर ने कर्नाटक में कैसे तैयार किए 300 व्यापारी, जाानिए इस रिपोर्ट में

राजस्थान के बाड़मेर बालोतरा क्षेत्र की कल्याणपुर तहसील के भगाणियों की ढाणी में 1 जून 1969 को एक सामान्य जाट किसान परिवार में जन्मे भंवरलाल आर्य का बचपन संघर्षों से भरा था। उस समय पड़े भयावह अकाल ने उनके जीवन को शुरुआत से ही कठिन बना दिया था।

बाड़मेर के बाल मजदूर ने कर्नाटक में कैसे तैयार किए 300 व्यापारी, जाानिए इस रिपोर्ट में

राजस्थान के बाड़मेर बालोतरा क्षेत्र की कल्याणपुर तहसील के भगाणियों की ढाणी में 1 जून 1969 को एक सामान्य जाट किसान परिवार में जन्मे भंवरलाल आर्य का बचपन संघर्षों से भरा था। उस समय पड़े भयावह अकाल ने उनके जीवन को शुरुआत से ही कठिन बना दिया था। पानी सिर पर घड़े रखकर छह-सात किलोमीटर तय कर लाया जाता और आर्थिक अभाव के कारण पढ़ाई-लिखाई की राह आसान नहीं थी। इन विपरीत परिस्थितियों के कारण वह पाँचवीं कक्षा तक की शिक्षा ही प्राप्त कर सके। जैसे-जैसे वे बड़े हुए, घर की गरीबी बढ़ गई—दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया।

लगभग 12 वर्ष की आयु में पारिवारिक दबावों और ज़रूरतों ने उन्हें मजबूर कर दिया कि वह मजदूरी करना शुरू करें। इसी सिलसिले में कर्नाटक में एक सेठ के घर में झाड़ू - पोछा करना, बर्तन धोना और दूसरी मंजिल तक पानी ले जाना—ये सारे काम उन्हें रोज़ करने पड़ते। फिर धीरे-धीरे उन्होंने अपनी ईमानदारी और लगन से सेठ का दिल जीता और दुकान पर काम मिलने लगा। पहले केवल कपड़ा और भोजन के बदले और बाद में 50 रुपये मासिक वेतन पर काम करने लगे। इसी बीच वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं से जुड़े और संघ-शिविरों में भाग लेने लगे। एक 22 दिवसीय शिविर में उन्हें जाना था, लेकिन सेठ की मनाही का सामना करना पड़ा—तब उन्होंने साहस दिखाया और बिना अनुमति के ही शिविर पहुँच गए।

शिविर में क्रांतिकारियों की कहानियाँ, बलिदान की कथाएं और विचार-चिन्तन ने उनके मानस को झकझोर दिया। विशेषकर भगत सिंह और वीर सावरकर जैसे व्यक्तित्वों की कथा ने उन्हें गहरा प्रभावित किया। शिविर के बाद, उन्होंने बैंगलोर में होलसेल दुकान में काम शुरू किया। वहाँ बैठे-बैठे वे अंग्रेजी–कन्नड़ के बोर्ड पढ़ना सीख गए और बाद में जनरेटर संचालन करने का काम संभाला। ग्रामीण क्षेत्रों में रातभर नाटकों के मंचन के लिए जनरेटर की ज़रूरत होती—उसी दौरान उन्हें कन्नड़ भाषा की बारीकियाँ जानने का अवसर मिला।

जब दीपावली पर वे राजस्थान आये तो मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि बड़े शहर की बजाय छोटे कस्बे में अपना व्यवसाय शुरू करें ताकि जोखिम कम हो। इस सलाह को मानते हुए वे रायचूर जिले के पास सिंधनूर में काम करने लगे। वहाँ नौ वर्षों तक दूसरों के यहाँ काम किया, स्थानीय लोगों से संबंध बनाए और व्यापार की समझ विकसित की। आखिरकार उन्होंने लगभग 30,000 रुपये की पूंजी से खुद की शुरुआत की। शुरुआत में कपड़ा हैदराबाद से लाया करते, सिर पर बंडल लेकर दुकान-दुकान जाना पड़ता था, और लाभ मात्र एक रुपये प्रति मीटर तक सीमित रहता था।

धीरे-धीरे यह छोटा व्यापार बड़ा होने लगा। एक साल में 30,000 की पूँजी बढ़कर एक लाख हो गई। मित्रों और शुभचिंतकों ने सलाह दी कि दुकान खोल लो—ताकि बोझ ढोने की पीड़ा कम हो। 1990 में “जनता टेक्सटाइल” नामक दुकान खोली, जिसमें उनके छोटे भाई ने साथ दिया। व्यवसाय को बढ़ाने के दौरान समाज सेवा और संगठनात्मक जुड़ाव धीरे-धीरे उनकी ज़िंदगी में केन्द्र बिंदु बन गए।

समय के साथ योग और स्वास्थ्य की ओर उनका झुकाव गहरा हुआ। जीवन में निरंतर अस्थमा की समस्या रही, लेकिन हरिद्वार में आयोजित योग शिक्षक शिविर में भाग लेने के बाद उनकी स्वास्थ्य स्थिति सुधरी। उस शिविर के आख़िरी दिन एक व्यक्ति की व्यथा और स्वामी रामदेव द्वारा भाषण ने उन्हें यह संकल्प दिलाया कि वे योग को जन-जन तक पहुंचाएँगे। शिविर से लौटे तो उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को योग सिखाना शुरू किया— शुरुआत में केवल दो-तीन लोग आते थे, पर धीरे-धीरे संख्या बढ़ी।

योग सेवा के साथ-साथ भंवरलाल संगठनात्मक कार्यों में सक्रिय हुए। रायचूर जिले के योग कार्यक्रमों के प्रभारी बने, मंडल अध्यक्ष बने, और पतंजलि, भारत स्वाभिमान आंदोलन, स्वदेशी आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने योगगुरु बाबा रामदेव के कार्यक्रमों की जिम्मेदारी संभाली और हिंदी भाषणों का कन्नड़ अनुवाद करने का काम भी किया। कन्नड़ भाषा में उनकी पकड़ इतनी मजबूत हो गई कि वे कहते हैं कि “मुझे अब अपनी मातृभाषा बोलने में ताकत लगानी पड़ती है।”

व्यापार के पक्ष में भी उन्होंने विस्तार किया। परिवार के भाइयों और कर्मचारियों को प्रशिक्षण देकर उन्हें अपनी दुकानों की मालिकाना हिस्सेदारी दी, इस तरह 200-300 लोग अपने दम पर व्यापार करने लगे। 2008 में होसपेट जिले में आयोजित योग शिविर की पूरी जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। इस आयोजन में उन्होंने एक-एक गांव में एक महीने तक प्रवास किया, लाखों लोगों से संपर्क किया और हजारों कार्यकर्ताओं को तैयार किया। इस सफलता ने उन्हें कर्नाटक में स्वामी रामदेव का प्रिय शिष्य बना दिया।

उन्होंने योग और समाज सेवा को समर्पित सैकड़ों शिविरों का संचालन किया, लाखों लोगों को प्रशिक्षण दिया। पत्रकारों, मठाधीशों, संतों और अन्य समाजसेवियों से सम्पर्क किया। कर्नाटक के सभी मठों में योग शिविर आयोजित किए। उन्हें अनेक प्रतिष्ठित सम्मान मिले — कार्यक्रमों द्वारा, स्थानीय और राज्य स्तर पर योग और सेवा को उजागर करने वाले आयोजनों द्वारा।

उनकी प्रेरक सोच है कि अगर व्यक्ति संकल्प दृढ़ करे, बड़ा सोचे, ईमानदारी से काम करे और सेवा भाव रखे, तो कठिन से कठिन राह भी पार की जा सकती है। शिक्षा अथवा डिग्री भले ही न हो, लेकिन उन्होंने आयुष मंत्रालय के योग सर्टिफिकेशन बोर्ड की विभिन्न परीक्षाएँ दे कर प्रमाणपत्र हासिल किया और कोरोना काल में कर्नाटक के 5,000 लोगों को योग सर्टिफिकेट परीक्षाएँ देने में मदद की।

आज भंवरलाल आर्य 1200 से अधिक योग कक्षाओं का संचालन कर रहे हैं; आकाशवाणी केंद्रों पर कन्नड़ में संवाद कार्यक्रम करते हैं; स्वास्थ्य चैनलों पर विशेषज्ञ रूप से भाग लेते हैं। आज उनकी फर्मों का वार्षिक टर्नओवर 200 करोड़ से अधिक बताया जाता है। आपको अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मान प्राप्त हैं और भविष्य में पतंजलि विश्वविद्यालय की ओर से माननीया राष्ट्रपति द्वारा मानद डाक्टरेट देने की घोषणा की गई है।

भंवरलाल की कहानी यह संदेश देती है कि नियती को भी मात दी जा सकती है—अगर इरादा मजबूत हो, जज़्बा पक्का हो और सेवा भाव सदा बना रहे। बाल मजदूर से शुरू हुआ सफर करोड़पति, योग शिक्षक और समाजसेवी बनने तक का उनका मार्ग, न केवल प्रेरक है बल्कि एक जीवंत उदाहरण है कि असम्भव को संभव करना संभव है।